अर्णिमा अगरवाल द्वारा लिखित

आज की दुनिया में हम बच्चों की समस्याओं को कोई नही समझता। आज छोटे-छोटे एकाकी परिवारों में भौतिक सुख सुविधाओं के बीच हम बच्चों का बचपन सिमट कर रह गया है। आज हम भागदौड़ भरी व्यस्त जिन्दगी में नितांत अकेले हैं। पैसे कमाने की लगी माँ-बाप की होड़ में बचपन में ही बच्चे बड़े होते जा रहे हैं। माता-पिता अपनी व्यस्त जिन्दगी से बच्चों के लिए समय नहीं दे पाते और बच्चे लगातार भौतिक सुख-सुविधाओं के बीच अकेले तथा अपराध की दुनिया में घिरते जा रहे हैं। हमारे पास न ही कहानी सुनाने वाले दादा-दादी हैं, और ना ही नाना-नानी। महानगरों की भीड़ में रहने वाले हम अपनी ही छोटी से दुनिया में सिमटते जा रहे हैं। हम अपनी सभ्यता संस्कृति को भूल उससे दूर रहकर जीवन जीने को विवश हैं । आज पैसा सर्वापि हो गया है। इस संसार में व्यक्ति एक दूसरे को पीछे छोड़ने की दौड़ में इतना व्यस्त हो गया है कि पैसे की चकाचौंध के पीछे होने वाले अपने नुकसान को वह पहचान ही नहीं पर रहा। हम बच्चे भी मात्र खिलौना बनकर रह गये जिनकी भावानाओं को कोई नही समझता। अपने हम उम्र बच्चों के साथ खेलने कूदने का आनंद आज के इस युग में केवल सपने जैसा लगने लगा है।

हमारी पढ़ाई तथा उससे बढ़ता तनाव भी आज हमारी परेशानी बन गया है। काश हम बच्चों को  समझने के लिए हमारा समाज एक बार फिर अपनी सोच को बच्चा बना सके। हमारी पेरशानियों को समझकर उन्हें दूर करने का प्रयास करे।

हम भी पंखों के साथ खुले आसमान में उड़ना चाहते हैं। दूर परियों के देश की सैर करना चाहते हैं। हमारा समाज एक बार फिर से भारतीय मानवता के मूल्यों को समझे । हमारा बचपन लौट आए। हमें अपने बड़ों से प्यार भरे अच्छे संस्कार मिले। हम अपने घर तथा आसपास के वातावरण में स्वयं को सुरक्षित महफूज समझें।

मैं इस लेख के माध्यम से यही कहना चाहती हॅू कि बच्चों का बचपन खुशियों, प्रशन्नताओं और फूलों की महक सा होना चहिए। हंसते-खेलते बच्चे पढ़ना, लिखना सब सीख जाते हैं, बोझ बनाकर नहीं। हम बच्चों की परेशानियों को समझे तथा दूर करें।