कक्षा 11 की छात्रा  द्वारा लिखित

भारत में अंग्रेजों के शासन के दौरान, मुंबई, जो बॉम्बे के नाम से जाना जाता था, एक बहुत बुरे प्लेग से प्रभावित हुआ था जिसे बुबोनिक या बॉम्बे प्लेग कहा जाता है । यह बीमारी जो 1896-1897 तक चली, इसने बहुत से लोगों की जान ली । मुंबई शहर की हालत कभी ऐसी भी रही होगी ये सोच पाना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन यह प्लेग मुंबई के इतिहास में काफी मायने रखता है । 

मुंबई में बुबोनिक प्लेग कहाँ से फैला इस बात की कोई पुष्टि नहीं है लेकिन यह माना जाता है कि यह प्लेग कुछ एक सदी पहले हांगकांग – चीन क्षेत्र के पास हुआ था । इसे फैलने से नहीं रोका जा सका क्योंकि उस वक़्त के चीनी शासकों का मानना था कि लोगों को उनके परिवार से अलग करना कन्फ़्यूशियस की शिक्षाओं के खिलाफ होगा ।

बॉम्बे में प्लेग के फैलने का कारण गंदगी बताया जाता है । यहाँ तक कि इस बीमारी के फैलने का आरोप गरीबों पर लगाया गया । गोवा के एक मेडिकल प्रैक्टिशनर, डॉ वीगस, ने बाद में यह साबित भी किया कि यह बीमारी चूहों से फैलती है ना की गरीबों से । कारण पता होने के बावजूद इसका कोई इलाज नहीं था । बॉम्बे की जनसंख्या बहुत तेज़ी से गिरी और सरकार को काफी कड़े कदम उठाने पड़े ।

सरकार ने स्थिति को संभालने के लिए एक महामारी रोग अधिनियम बनाया जिसके जरिये सरकार ने सभी वो तरीके अपनाए जिससे बीमारी को फैलने से रोका जाए । 124 साल बाद फिर इस अधिनियम का प्रयोग करना पड़ा, कोविद 19 महामारी से निपटने के लिए । अंग्रेज, जिन्होने पहले भी चौदवी सदी में ‘काली मौत’  नामक एक खतरनाक प्लेग का सामना किया था, उन्हे ‘अलग करना’ ही सबसे सही रासता लगा । हालांकि लोगों ने इस तरीके की काफी आलोचना करी क्योंकि उन्हे यह सामाजिक रूप से सही नहीं लगा । जिस तरीके से लोगों के साथ व्यवहार किया गया उससे भी लोग काफी नाखुश थे । कुछ भड़के हुए मिल कर्मचारियों ने आर्थर रोड अस्पताल के सामने विरोध प्रदर्शन भी किया और उसे तोड़ने की धमकी भी दी।

डॉक्टरों  के लिए यह प्लेग काफी चुनौतीपूर्ण था क्योंकि इसके लक्षण टाइफाइड या मलेरिया से बिलकुल मिलते जुलते थे । ग्लैंडस (glands) की सूजन भी एक लक्षण था, जो कि बॉम्बे में पहले से मौजूद किसी और बीमारी का लक्षण था । सरकार के इस बीमारी को गंभीरता से ना लेने के कारण हालात और बिगड़ गए और दूसरी तरफ प्रवासियों के शहर छोड़ने से आर्थिक स्थिति भी बिगड़ने लगी । ऐसे समय में, एक भारतीय शिक्षक सावित्रीबाई फुले ने अपने बेटे यशवंतराव को एक क्लीनिक बनाने के लिए कहा, जहां पर उन्होने किसी की जाती की परवाह ना करते हुए इलाज किया । इससे कई लोगों को ठीक होने में मदद मिली ।

बॉम्बे के गवर्नर ने आखिर में, वाल्डेमार मोर्दकै हफ़काइन, एक रूसी वैज्ञानिक, को इलाज खोजने के लिए बुलाया जिन्होने पहले हैजा की वैक्सीन भी खोजी थी। जेजे अस्पताल की एक इमारत को अनुसंधान केंद्र में बादल दिया गया था जहां आखिरकार सफलता मिली । इलाज मिलते ही, हफ़काइन ने मशहूर कमरा नंबर 000 में अपने फारसी असिस्टंट की मदद से पहले अपने  आपको इंजेक्शन लगाया ।

ऐसी चौंकाने वाली घटना यह साबित करती है कि इतिहास खुद को दोहराता है, सिर्फ 124 साल पुरानी अधिनियम जैसी नीतियों में ही नहीं बल्कि डॉक्टरों और नागरिकों की दुर्दशा में भी । अभी के लिए हम केवल यह आशा कर सकते हैं, कि हमारे बीच एक और सावित्री फुले, डॉ वीगास या हाफकीन मौजूद हों ।