अभिषेक कश्यप, 20 साल का छात्र

शाम के करीब 6 बज गए थे, लंबे सफ़र के थकान के बाद सामने एक ढाबा नज़र आया। वहींथोड़ी देर ठहर कर कुछ जलपान करके आगे बढ़ने का विचार हुआ। हमारे पास के ही टेबलों पर कुछ दस बारह लोगों का जमघट लगा था। सभी के सभी किसी विषय को लेकर गहन विचार विमर्श कर रहे थे। इसी बीच उन्हीं में से किसी एक ने यह कहा कि बाल श्रम करवाने वालों को तो सूली पर चढ़ा देना चाहिए, मुझे उनकी इस मानसिकता ने बड़ा प्रभावित किया। परंतु चंद मिनटों बाद ही उन्होंने ढाबे की और चुटकी बजाते हुए कहा,”ए छोटू, सभी के लिए चाय लेकर आ” उनके इस वक्तव्य से मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं किस प्रकार की प्रतिक्रिया दूँ।

मैंने नजर घुमा कर उस खिड़की की ओर देखा जहां पर वह छोटू चाय बना रहा था, 12 से 13 वर्ष की उम्र होगी, इस बच्चे के बदन पर कपड़े नहीं थे, एक फटी सी गंजी उसने पहन रखी थी। उन खिड़कियों में खड़ा हुआ वह लड़का ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी परिंदे को एक पिंजरे में कैद करके रखा हुआ है। एक ऐसा परिंदा जिसे अपने हक के आसमान का इंतजार है। जो अपने खुले हुए पंखों से आजाद होकर जिंदगी के इस नीले अंबर में खुलकर उड़ान भरना चाहता है। लेकिन, मजबूरी, जिम्मेदारियों, हमारे नजरंदाजगी और व्यवस्था के नकारेपन के बोझ तले उस मासूम ने उस पिंजरे को ही अपना आशियाना समझ लिया है।

उन थकी हुई डबडबाती गीली आंखों से फिसलते हुए और सिहरते हुए सपने साफ दिखाई दे रहे थे। उस मासूम की जो मुस्कुराहट थी उसके पीछे का दर्द कितना गहरा था उसके चेहरे से साफ झलक रहा था। परंतु हालात का मारा था, इसलिए जैसा भी था जो भी वह देख रहा था जो भी झेल रहा था उसे अपनी किस्मत समझ कर वह चुपचाप उसे सहता जा रहा था।

उसने बोला कुछ नहीं लेकिन बहुत सारी कहानियां और बहुत सारी सच्चाई उसने बिन बोले ही हमें सुना दिए, बहुतसारे राज और बहुत सारे सवाल उसने हमारे सामने रख दिए जिसके जवाब हम सभी को पता है परंतु हम उसको नजरअंदाज करते हैं।

सबसे पहले तो उस चुप्पी ने लोगों की उस पाखंड को बेनकाब किया जिसमें बातें तो वे बड़ी-बड़ी करते हैं परंतु कहीं ना कहीं जिस अपराध की वह खुद निंदा कर रहे हैं उसमें उनकी खुद भी कहीं ना कहीं भागीदारी है।

दूसरा बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हमारी सरकार और हमारी व्यवस्था की उसने वह पोल खोल दी जहां पर ऐसे मामलों में वह सुधार की बात कहकर खुद की पीठ थपथपाने का एक मौका तक नहीं छोड़ते हैं।

तीसरा और सबसे अहम उसने हम सबकी भी पोल खोल दी और हमे यह एहसास दिलाया कि हम कैसे रोज ऐसे हजारों मासूम परिंदों को कैद देखकर उन्हें नजरअंदाज करके छोड़ देते हैं, कैसे हम सभी सब कुछ देख कर भी अंधे होने का नाटक करते हैं।

उस समय मेरे मन में बेचैनी बहुत ज्यादा थी क्योंकि मैंने बाल श्रम से जूझते हुए उस बचपन को देखा था, जिसमें खेल तो बहुत बड़ा था लेकिन उस खेल का खिलौना उस मासूम की जिंदगी थी। उस बचपन में मस्ती के अंश नहीं थे बल्कि मजबूरियों के गहरे घाव लगे हुए थे।

उसमें किताबों की ओट नहीं थी और ना ही बेफिक्री की छांव थी, बल्कि उसमें तो जिम्मेदारियों का बोझ भरा था।

आंखों में मीठे और बड़े सपने जरूर थे, अरमान आसमान को छूने का भले था, परंतु उस ऊंचाई तक पहुंचने के लिए किसी भी सीढ़ी का सहारा नहीं था।

एक ऐसा बचपन था जहां पर जिंदगी की खुशियों को सिर्फ एक हल्की सी मुस्कान बनाकर उसने सबको दिखाया था, लेकिन उस मुस्कान के पीछे का दर्द कितना गहरा था यह कोई नहीं समझ पा रहा था।

बातें बहुत सारी थी, परंतु उसी बीच एक साथी ने मुझे एक ऐसी बात कही जिस पर मेरी प्रतिक्रिया पूरी तरीके से शून्य हो गई। उसने कहा, “ज्यादा ध्यान मत दे 2 दिन में तू ही भूल जाएगा”। बात तो सही कही उसने हम हल्ला तो बहुत मचाते हैं खूब सारी मांगे उठाते हैं परंतु 2 दिन बाद हम सब कुछ भूल जाते हैं।

यही सच्चाई सरकार की भी है। कानून तो बहुत सारे बनाते हैं, परंतु जमीनी स्तर पर वह चीजें कभी उतर ही नहीं पाती है। बाल श्रम को लेकर कठोर कानूनों की कमी नहीं है, परंतु आम जनता की नजरअंदाजगी, व्यवस्था की नाकामी के कारण यह चीज जमीनी स्तर पर सही से कभी भी लागू हो ही नहीं पाती है।

हम लोग भी इन चीज को देखते देखते नजरअंदाज करते रहते हैं। कभी मन किया तो इस पर बोल देते हैं, विरोध बहुत सारा करते हैं, गुस्सा खूब सारा दिखाते हैं और कुछ दिन बाद हम फिर से चुप हो जाते हैं और फिर से इन चीजों को भूल जाते हैं हमारे अंदर की जो सेवा भाव और इन मासूमों की मदद करने की भावना जागृत होती है, वह चंद दिनों में ही पूरी तरीके से सो जाती है।

जिम्मेदारी हम सब की है बदलाव हम सभी चाहते हैं और मालूम है कि हम सभी को है परंतु अपनी तरफ से पहल कोई नहीं करना चाहता है और यही हमारी सच्चाई है। परंतु इस चीज से हमारा कुछ नहीं बिगड़ता है, बिगड़ता है तो उन मासूमों का जिनके मन में हम यह आस जगा देते हैं कि हम तुम्हारे साथ हैं और फिर हम उनका साथ छोड़ देते हैं। उनके मन में एक किया भरोसा जागृत होता है कि शायद अब हमें वह खुला आसमान मिल पाएगा जिसके सपने हम कई सालों से देखते हैं। उन्हें लगता है कि शायद उनके हक का आसमान अब उन्हें मिल जाएगा और वे पंख फैलाकर जिंदगी के इस नीले अंबर में फिर से उड़ान भर सकेंगे। परंतु इस आस को और इस भरोसे को जगा कर हम खुद उन लोगों को भूल जाते हैं और उन मासूमों का भरोसा हर बार टूट जाता है और सिर्फ भरोसा ही नहीं टूटता हमारी इस गलती के कारण वह खुद अंदर से टूट जाते हैं। उन लोगों को फिर से वही चीजें सहनी पड़ती है और वह फिर से उन्हीं जुल्म को झेलते हैं और फिर से उस पिंजरे को अपना आशियाना मान लेते हैं।

वह बचपन फिर से बाल श्रम से जूझने लगता है और वह परिंदा फिर से उस पिंजरे में कैद हो जाता है और वह मुस्कुराहट फिर से दर्द के बक्से में बंद हो जाती है और हम सभी फिर से अपने साधारण जीवन में आ जाते हैं और फिर से उन्हें नजरअंदाज करने लगते हैं और ऐसे फिर से बाल श्रम के चंगुल में बचपन बंध जाता है और ऐसा बचपन फिर से मुख्यधारा से कोसों दूर हो जाता है। उन मासूम परिंदों की जिंदगी उस छोटे से पिंजरे जैसे कैद खाने में सिमट कर रह जाती है और उनकी व्यथा को सुनने कोई नहीं आता है और यही बाल श्रम से जूझता हुआ बचपन कहलाता है।