एक भूभाग और दो दावेदार : आर्मेनिया और अज़रबैजान
“वसुधैव कुटुंबकम्” यह संसार एक परिवार है, पर फिर भी हम अपने ही परिवार में रहने वाले लोगों को मार रहें हैं, वो भी एक जमीन के टुकड़े के लिए।
प्राची द्वारा लिखित, 19 साल की छात्रा
“वसुधैव कुटुंबकम्” यह संसार एक परिवार है, पर फिर भी हम अपने ही परिवार में रहने वाले लोगों को मार रहें हैं, वो भी एक जमीन के टुकड़े के लिए।
आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच 27 सितम्बर को भीषण युद्ध शुरू हो गया। युद्ध में लगभग हज़ार से भी ज्यादा लोगों की जान चली गई है और हज़ारो की संख्या में लोग बेघर हो गए हैं। युध्द की शुरुआत तब हुई जब अज़रबैजान की सेना का एक ट्रक नागोर्नो-काराबाख की सीमा में प्रवेश कर रहा था, जिसे आर्मेनिया की सेना ने उड़ा दिया।
क्या है युध्द का कारण?
आर्मेनिया और अज़रबैजान पश्चिमी एशिया के काकेशियान क्षेत्र में स्थित दो देश हैं। आर्मेनिया एक ईसाई बहुल देश हैं जबकि अज़रबैजान एक इस्लाम बहुल देश हैं। इन दोनों देशों के बीच युध्द का कारण नागोर्नो-काराबाख क्षेत्र है। नागोर्नो-काराबाख लगभग 4400 वर्ग किलोमीटर में फैला एक पहाड़ी क्षेत्र है, इस इलाके में 95% आर्मेनिया मूल के निवासी और लगभग 5% तुर्क मुस्लमान रहते हैं।
इन दोनों देशों के बीच इस विवाद की शुरुआत 1918 में तब हुई थी जब यह दोनों देश रूसी साम्राज्य से स्वतंत्र हुए थे। 1921 में ये दोनों देश सोवियत संघ का हिस्सा बने। सोवियत संघ के विघटन से पहले ही नागोर्नो-काराबाख को स्वायत्त क्षेत्र (autonomous area) बना दिया गया। सोवियत संघ के नेताओं ने इस क्षेत्र को अज़रबैजान को देने का फैसला किया। ऐसा माना जाता है कि स्टालिन ने यह फैसला इसलिए लिया क्योंकि अज़रबैजान प्रथम विश्व युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य का एक क्षेत्रीय सहयोगी था और स्टालिन नागोर्नो-काराबाख को आर्मेनिया में मिलाकर तुर्की को दक्षिणी काकोशस में जातीय तनाव का फायदा उठाने का मौका नहीं देना चाहते थे। इसलिए इस क्षेत्र को अज़रबैजान में मिला दिया गया। सोवियत संघ के मजबूत रहने तक क्षेत्र में शांति बनी रही, परन्तु 1980 के दशक से इस क्षेत्र में जातीय संघर्ष शुरु हो गया। 1988 में नागोर्नो-काराबाख की क्षेत्रीय सरकार ने स्वंय की स्वायत्तता समाप्त कर दी और आर्मेनिया में शामिल होने का प्रस्ताव पारित किया और 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद स्वंय को स्वंतत्र राष्ट्र घोषित कर दिया।
अज़रबैजान ने इसका विरोध किया, और इसके बाद आर्मेनिया समर्थित नागोर्नो-काराबाख और अज़रबैजान के बीच कई सालों तक विद्रोह चलता रहा।
1994 में रूस ने मध्यस्थ्ता कर इन दोनों देशों के बीच युध्द विराम की घोषणा की और बिश्केक प्रोटोकॉल (Bishkek Protocol) पर हस्ताक्षर किए। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नागोर्नो-काराबाख को अज़रबैजान का हिस्सा माना जाता है, परन्तु वास्तव में यहाँ सरकार आर्मेनियाई अलगाववादियों की है।
इस संघर्ष में कौन किसका दे रहा है साथ?
जुलाई 2020 में अज़रबैजान के नागरिक सड़कों पर आ गए, और सरकार से नागोर्नो-काराबाख को अज़रबैजान में मिलाने की माँग करने लगे। तभी से इन दोनों देशों के बीच विवाद इस वर्ष बढ़ा और सितंबर में इसने एक युद्ध का रुप ले लिया।
इस संघर्ष में तुर्की ने एक मुस्लिम देश होने के नाते अज़रबैजान का साथ दिया, क्योंकि अज़रबैजान में कुछ तुर्क मुस्लिम भी रहते हैं। ईरान जो इन दोनों देशों का पड़ोसी देश हैं, उसने किसी का भी साथ न देते हुए, शांति स्थापित करने की सलाह दी है। पाकिस्तान ने इस संघर्ष में अज़रबैजान का समर्थन किया है। इजरायल के इन दोनों देशों से सम्बंध अच्छे हैं, वह इन दोनों देशों को हथियार बेचता है। रूस भी इन दोनों देशों को हथियार बेचता है परन्तु रूस और आर्मेनिया CSTO (Collective security treaty organization) के सदस्य हैं, जिसके तहत रूस को आर्मेनिया की संकट के समय में सुरक्षा करनी होगी।
युद्ध से भारत पर प्रभाव:
आर्मेनिया और अज़रबैजान दोनों से ही भारत के संबंध अच्छे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन कॉरिडोर (INSTC) प्रोजेक्ट के तहत एशिया और यूरोप के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के लिए 7200 किलोमीटर लंबा एक रेल, सड़क और जल मार्ग तैयार किया जा रहा है। इस प्रोजेक्ट में भारत, ईरान, अफ़गानिस्तान, अज़रबैजान, रूस, मध्य एशिया और यूरोप शामिल हैं। अज़रबैजान में भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी ONGC ने भी निवेश किया है।
परन्तु आर्मेनिया ने भारत का कश्मीर के मुद्दे पर साथ दिया है, और हमेशा से ही देता आया है। आर्मेनिया में लगभग 3000 से ज्यादा भारतीय लोग रहते हैं। इसलिए भारत के लिए बहुत ही मुश्किल है, किसी एक देश का चयन करना। भारत ने इन दोनों देशों से शांति स्थापित करने के लिए कहा है।
युद्ध से अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव:
अज़रबैजान एक ऊर्जा सम्पन्न देश है। अज़रबैजान ने काला सागर से लेकर कैस्पियन सागर (तुर्की से यूरोप) तक तेल पाईपलाईनों की स्थापना कर रखी है। इन पाईपलाईनों में बाकू तबलिसी सेहान तेल पाईपलाईन, पश्चिमी मार्ग निर्यात तेल पाईपलाईन, ट्रांस-अनोतोलियन गैस पाईपलाईन और दक्षिण काकेशस गैस पाईपलाईन शामिल हैं जहां से लगभग प्रतिदिन 1.2 बैरल से ज्यादा तेल परिवहन का उत्पादन होता है। युद्घ शुरु होने से इन पाईपलाईनों को निशाना बनाया जाएगा, जिसके कारण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतों में वृद्धि होगी, और बहुत सारे देशों का नुकसान होगा।
युद्घ किसी भी समस्या का समाधान नहीं होता है, हम झगड़ों को आपसी बातचीत द्वारा भी सुलझा सकतें हैं। नरसंहार करना,लोगों को उनके घरों से उजाड़ना, हिंसा करना, ये सभी चीजें मानवता पर कलंक हैं। और इस समय पूरा विश्व कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा है, हमें कोरोना से बचने के लिए वैक्सीन ढूढ़नी चाहिए न कि हथियार उठाकर युद्घ करना चाहिए। इसलिए अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है –
“शांति बलपूर्वक नहीं रखी जा सकती, यह तो केवल सहमति से ही प्राप्त की जा सकती है।”
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6 Comments
Very good
Nice Prachi
Nice written, Prachi
Nice 👌
Nice
Wonderful 😇