जनजातीय समुदाय के मसीहे बिरसा मुंडा जी
बिरसा मुंडा जी का जन्म आदिवासी और जनजातीय गरीब परिवार में 1875 में हुआ। इनका परिवार झारखंड के पिछड़े और जनजातीय जिले खूटी के उलीहातु क्षेत्र में रहता था।
बिरसा मुंडा जी का जन्म आदिवासी और जनजातीय गरीब परिवार में 1875 में हुआ। इनका परिवार झारखंड के पिछड़े और जनजातीय जिले खूटी के उलीहातु क्षेत्र में रहता था।
गीतांजलि द्वारा लिखित, 19 साल की छात्रा
वर्ष 2021 से भारत सरकार ने 15 नवंबर के दिन, जिसे बिरसा मुंडा की जयंती के रूप में मनाया जाता था, को राष्ट्रीय जनजातीय दिवस के रूप में मनाना आरंभ कर दिया है। यह दिवस बिरसा मुंडा जी के समर्पण, त्याग तथा साहस की याद में मनाया जा रहा है। आज हम बिरसा मुंडा जी के जीवन तथा भारत की स्वतंत्रता में उनके अमूल्य योगदान के बारे में जानने वाले हैं।
जन्म और आरंभिक जीवन
बिरसा मुंडा जी का जन्म आदिवासी और जनजातीय गरीब परिवार में 1875 में हुआ। इनका परिवार झारखंड के पिछड़े और जनजातीय जिले खूटी के उलीहातु क्षेत्र में रहता था। उनकी माता जी का नाम करमी मुंडा और पिताजी का नाम सुगना मुंडा था।
अधिक जानकारी के लिए आपको बता दे कि मुंडा एक जनजाति है जो आज भी बिहार, झारखंड, उड़ीसा आदि क्षेत्रों में रहती है। इस जनजाति के लोग अपने उपनाम के रूप में मुंडा का प्रयोग करते हैं।
आदिवासी एवं जनजातीय क्षेत्र से होने के कारण उनका बचपन माता-पिता के साथ जंगलों में घूमते फिरते बीता है और उनकी अधिकतर आवश्यकताएं जंगल, जमीन और प्रकृति से ही पूरी हो जाती थी।
बिरसा मुंडा की शिक्षा
बिरसा मुंडा बहुत ही साहसी, दृढ़निश्चयीय और परिश्रमी थे। वह बचपन से ही औपनिवेशिक भारत को देख रहे थे और अंग्रेजों के अत्याचार को महसूस कर रहे थे इसलिए वह समाज में बदलाव लाना चाहते थे तथा लोगों की मदद करना चाहते थे। जनजातीय क्षेत्र से होने के बावजूद, उन्होंने शिक्षा प्राप्त की उनकी प्रारंभिक शिक्षा साल्गा गांव में हुई और आगे की शिक्षा उन्होंने चाईबासा के एक विद्यालय गोस्नर एवंजिलकर लुथार विद्यालय से हुई थी।
अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह
बिरसा मुंडा बढ़ती उम्र के साथ और भी समझदार होते गए और वह ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों और अन्यायपूर्ण नीतियों का विरोध करने लगे। उन्होंने अपने क्षेत्र के लोगों को इकट्ठा करना आरंभ कर दिया।
सबसे पहले उन्होंने 1894 में अपने क्षेत्र के नौजवान नेता के रूप में 8 अक्टूबर को सारे मुंडा जनजाति के लोगों को इकट्ठा किया और ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए जाने वाले अन्यायपूर्ण कर व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को दबाने का प्रयास किया और 1895 में आंदोलनकारियों समेत उन्हें भी गिरफ्तार करके हज़ारीबाग जेल में भेज दिया गया। उन्होंने 1895-1897 तक दो वर्ष जेल में बिताए।
1897 में जेल से छूटने के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और सारे मुंडा निवासियों को एक करके अंग्रेज सिपाहियों के विरोध में एक युद्ध छेड़ दिया। यह युद्ध 1900 तक चला जिसमें कई अंग्रेज सिपाही मारे गए। इस दौरान बिरसा मुंडा जी ने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था और आपको जानकर हैरानी होगी कि अंग्रेजों ने उनको पकड़ने के लिए उस समय पर ₹500 का इनाम भी रखा था।
अनेकों समस्याओं और चुनौतियों के बावजूद बिरसा मुंडा जी ने कभी हार नहीं मानी और आदिवासी और जनजातीय गरीब लोगों की मदद के लिए तत्पर रहे।
आदिवासियों के जीवन में योगदान
आज के समय में बिरसा मुंडा जी के जयंती को पूरे भारत में जनजातीय दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। यह दर्शाता है कि उन्होंने जनजातीय लोगों के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। अंग्रेजो के सैकड़ों अत्याचारों और चुनौतियों के बावजूद उन्होंने कर से पीड़ित किसानों और जनजातीय लोगों की मदद के लिए साहस दिखाया और उनका नेतृत्व किया।
उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए जाने वाले अत्याचारी कर को रोकने के लिए और कर माफ करने के लिए बहुत से आंदोलन किए।
जनजातीय लोगों की समस्याओं को सुलझाने तथा उनके अधिकारों के लिए लड़ने के लिए उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा।
इसीलिए जनजातीय लोगों ने उन्हें महापुरुष के रूप में दर्जा दिया तथा उनके इलाके के लोग उन्हें “धरती आबा” के नाम से भी जानते थे अर्थात सम्पूर्ण धरती के पिता। कोई भी निर्णय उनके अनुमति के बिना नहीं लिया जाता था तथा हर कार्य में उनका मार्गदर्शन लिया जाता था। सरल शब्दों में कहें तो लोग उन्हें भगवान का दर्जा देते थे।
बिरसा मुंडा की मृत्यु
बिरसा मुंडा अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक जनजातीय लोगों तथा भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे। 1897 के विद्रोह और आंदोलन के बाद उनके शिष्यों समेत बिरसा मुंडा जी को भी 3 फरवरी 1900 चक्रधरपुर के जंगलों से गिरफ्तार करके अंग्रेजों द्वारा जेल में डाल दिया गया जहां उन्होंने कुछ महीने बिताए।
9 जून 1900 को अंग्रेजों द्वारा जहर देकर उन्हें मार दिया गया और रांची के कारागार में उन्होंने उसी दिन अपनी अंतिम सांसे ली।
आज भी बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के आदिवासी और जनजातीय लोग बिरसा मुंडा जी को अपने आदर्श के रूप में मानते हैं। उनकी मृत्यु के बाद रांची में कोकर के पास उनकी समाधि स्थापित की गई और उनकी एक बड़ी विशालकाय प्रतिमा भी लगाई गई। उनकी याद में रांची में स्थित बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमान क्षेत्र भी बनाया गया है और पिछले वर्ष से 15 नवंबर को राष्ट्रीय जनजातीय दिवस के रूप में भी मनाया जा रहा है।
आशा है आपको यह लेख पसंद आया होगा और आपको बिरसा मुंडा जी की कहानी से कुछ नया सीखने को मिला होगा। हम इसी प्रकार के विभिन्न लेखों के साथ मिलते रहेंगे।
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शीर्षक छवि स्रोत: wikimedia