पाखी द्वारा लिखित, 20 साल की छात्रा

कठपुतली की कला बहुत प्रसिद्ध है। कठपुतली का नाम काट की पुतली से पड़ा है क्योंकि पहले के समय में कठपुतली लकड़ी से बनाई जाती थी। कठपुतली की साज-सज्जा बहुत सुंदर एवं आकर्षक होती है जिसमें कठपुतली को राजस्थानी वेशभूषा पहनाए जाते हैं और उनसे विभिन्न प्रकार के खेल दिखाया जाता है।

कठपुतली का खेल प्राचीन नाटकीय खेल है जो भारत के कई राज्यों में प्रचलित रहा है। कठपुतली का शाब्दिक अर्थ ‘लकड़ी की गुड़िया’ होता है। कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है। इसका उल्लेख ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी के अष्टाध्यायी में नकसूत्र में ‘पुतला नाटक’ में मिलता है।

लोगों का यह भी मानना है कि शिव जी ने काठ की गुड़िया में प्रवेश कर पार्वती माता का मन बहलाया था और तभी से इस कला की शुरुआत हुई थी। हमारे देश में यह कला लगभग 2000 वर्ष पुरानी है। इस कला का प्रयोग मुख्य रूप से ऐतिहासिक कहानियां और स्थानीय परंपराओं का प्रदर्शन करने में होता था परंतु अब के दिनों में इनके द्वारा कई फिल्मों के किरदार, विज्ञापनों और आम आदमी के जीवन की परेशानियों को भी दर्शाया जाता है।

कठपुतली का खेल हिंदी में

भारत के अलग-अलग हिस्से में इसे अलग नाम से जाना जाता है। उड़ीसा की कठपुतली को कुंधेई कहते हैं। इसको हल्की लकड़ी से बनाया जाता है और इनके पैर नहीं होते हैं। कर्नाटक का धागा पुतली गोम्बा अटाट् से प्रचलित है। इनकी आकृति अत्यंत सुस्जित होती है। छड़ और कठपुतली की तकनीकी तमिलनाडु की बोम्मालात्तम में एक साथ मिलती है।

अब समय के साथ मनोरंजन के  संसाधनों में बढ़ोतरी होने हेतु कठपुतली की कला क्षीण हो गई है। यह दुख की बात है कि इन कलाकारों की अजीवीका सतत नहीं है और ना चाहते हुए भी इन्हें अपनी कठपुतलियों को बेचना पड़ता है। सदियों पुरानी कला आज अपने अस्तित्व के लिए परेशान हो रही है इसलिए यह हमारा कर्तव्य है कि ऐसे ऐतिहासिक कलाओ को संरक्षित करें सिर्फ उनके सांस्कृतिक महत्व के कारण नहीं परंतु इसलिए क्योंकि इन कलाओं को प्रदर्शित करने में अतुल्य कलात्मक कोशल और समर्पण निहित है।

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