1962 भारत चीन लड़ाई
1962 का भारत-चीन युद्ध, सिनो-इंडीयन (Sino-Indian) युद्ध के नाम से जाना जाता है जो कि एक अचानक किया गया और पहले से ना सोचा जाने वाला हमला था..
1962 का भारत-चीन युद्ध, सिनो-इंडीयन (Sino-Indian) युद्ध के नाम से जाना जाता है जो कि एक अचानक किया गया और पहले से ना सोचा जाने वाला हमला था..
कक्षा 11 की छात्रा द्वारा लिखित
1962 का भारत-चीन युद्ध, सिनो-इंडीयन (Sino-Indian) युद्ध के नाम से जाना जाता है जो कि एक अचानक किया गया और पहले से ना सोचा जाने वाला हमला था..
1962 का भारत-चीन युद्ध, सिनो-इंडीयन (Sino-Indian) युद्ध के नाम से जाना जाता है जो कि एक अचानक किया गया और पहले से ना सोचा जाने वाला हमला था । चीनी सैनिकों ने भारत पर हमला नॉर्थ-ईस्ट फ़्रंटियर एजेंसी (जिसे वर्तमान में अरुणाचल प्रदेश के नाम से जाना जाता है) में मैकमोहन लाइन से किया जब भारत इसकी बिलकुल भी उम्मीद नहीं कर रहा था ।
1945 के दशक से, भारत और चीन के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध थे, और 1954 में, दोनों देशों ने ‘पंचशील समझौते’ या ‘शांतिपूर्ण साथ रहने के पाँच सिद्धांतों’ पर हस्ताक्षर भी किए । इसी दौरान पूर्व प्रधानमंत्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘हिन्दी-चीनी भाई भाई’ की प्रसिद्ध कहावत को बढ़ावा दिया था ।
तो, जब सब कुछ ठीक था तो हमला क्यूँ हुआ?
जुलाई 1954 में, हमारे तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सभी सीमायों पर चीनी और भारतीय क्षेत्रों को स्पष्ट करने के लिए चीनी प्रधानमंत्री को चिट्ठी भेजी । चीनी नक्शे में 1,20,000 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र शामिल थे । जब प्रधान मंत्री झोउ एनलाई से इसके बारे में पूछा गया, तो उन्होंने इसे गलती बताया । लेकिन इनलाई ने जल्दी ही ये दावा करना शुरू कर दिया कि असल में विवादित अकसाई चीन क्षेत्र उनका है ।
मार्च 1959 में तिब्बत के ल्हासा में चीनी शासन के खिलाफ विद्रोह हुआ । आंदोलन तेजी से पूरे देश में फैलने लगा और पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने दबाने के लिए क्रूर तरीकों का सहारा लेना शुरू कर दिया । जबकि काफी लोग देश छोड़कर अरुणाचल आ गए, चौदवें दलाई लामा ने भारत से राजनीतिक शरण का अनुरोध किया । शरण सिर्फ ‘राजनीतिक शरणार्थियों’ जैसे कि दलाई लामा को ही प्रदान की जाती है । भारत ने तिब्बत के स्थानीय शरणार्थियों का भी स्वागत किया और उनके लिए पुनर्वास केंद्र स्थापित किए ।
यह बात पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के एक बड़े नेता माओ जेडोंग को अच्छी नहीं लगी और तिब्बती दलाई लामा को भारत में शरण देना भी ‘तिब्बत के शासन के लिए खतरा’ माना गया । माओ ने ल्हासा में चल रहे विद्रोह के लिए भी भारतीयों को दोषी ठहराया ।
हमला युद्ध में कैसे बदल गया और हम क्यों हार गए ?
जैसे ही भारत और चीन के बीच तनाव बढ़ने लगा, भारत ने अपनी ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ जारी की, जिसका उद्देश्य था ‘चीनी सैनिकों के आगे बढ़ते ही पीछे चौकी बनाना’ जिससे कभी उनके द्वारा हमले का प्रयास किया जाता तो भारतीय सैनिक उनकी ज़रूरी चीजों को रोक सकें और उनको वापस जाने के लिए मजबूर कर सकें ।
भारत ने ऊपर बताए गए सभी तरह के उपाय किए, लेकिन भारत ने कभी ऐसा नही सोचा था कि चीन युद्ध करेगा । इसलिए, जब चीन ने एक साथ लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में अलग अलग चौकियों से हमला किया, तो भारतीय सैनिकों को झटका लगा । उनके पास एक पूरे युद्ध के लिए ना तो आवश्यक चीज़ें थी और ना ही उतनी संख्या में सैनिक ।
आखिरकार, झोउ एनलाई ने बातचीत की और युद्ध रोकने का प्रस्ताव रखा । प्रस्ताव यह था कि भारत और चीन दोनों अपने-अपने LAC (वास्तविक नियंत्रण रेखा) से 20 किलोमीटर दूर चले जाएंगे । लेकिन नेहरू जी ने ये प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि अकसाई चिन पर चीन का दावा अवैध है ।
इन सब के बीच, सोवियत संघ जैसी विदेशी शक्तियां, जो भारत की समर्थक हुआ करती थीं, उन्होंने चीन की तरफदारी शुरू कर दी । संसद में काफी बहस और चर्चाएँ हुईं और युद्ध कुछ समय के लिए रुक भी गया लेकिन फिर दोबारा नेहरू जी के जन्मदिन (14 नवंबर) पर शुरू हो गया । एक हफ्ते के बाद चीन अकसाई चिन पर कब्जा करने में सफल रहा और युद्ध समाप्त हो गया ।
1962 के चीन भारत युद्ध ने भारत को एक सदमे में डाल दिया । प्रसिद्ध गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ लता मंगेशकर ने इसी युद्ध के बाद निकाला था । इस युद्ध के बाद देश की रक्षा नीतियों को बदला गया और उनमें परमाणु ऊर्जा को शामिल किया गया । इस युद्ध में फसे कुछ तिब्बती शरणार्थी आज भी अरुणाचल प्रदेश में रहते हैं, जबकि और सभी शरणार्थी पूरे देश में फैले हुए हैं ।